बखोटन (भाग-4)



:-महाराज मुझे आपत्ति है। 

बखोटन ने खड़े होकर कहा।

महाराज ने कहा :- क्या? क्यों?

                अभी एक संध्या पूर्व ही तो तुम मुझसे सेनापति के पद के लिए

अपनी अनुशंसा कर रहे थे। 


बखोटन ने कहा :-

और महाराज तब मुझे उपरोक्त पद नहीं दिया गया था , अब जबकि मेरे दल

के सारे लोग मारे गए , तो क्या मुझे अपने साथियों के मौत का पुरस्कार

दिया जा रहा है?


महाराज ने कहा :-

बखोटन ये पद कोई पुरस्कार नहीं एक उत्तरदायित्व है, और ये तुम्हे इस

कारण दिया जा रहा है की तुमने शत्रु सम्राट का सर लाकर युद्ध में अपने

राज्य को एक विशाल बढ़त दिलाई है। 


बखोटन ने कहा :-

यकीन मानिये महाराज , शत्रु सम्राट का गला  काटते हुए क्षण भर के लिए

भी मेरे मस्तिष्क में ये नहीं आया की मेरे कृत्य से राज्य को बढ़त मिलेगी।  

बल्कि ह्रदय में मेरे साथियों के मृत शरीर और मुरझाये हुए चेहरे थे , 

उन साथियों के जिनके दल का मैं मुखिया था।

मैंने बस अपना प्रतिशोध लिया है , एक व्यक्तिगत प्रतिशोध।

और मेरा प्रतिशोध पूरा हुआ 


जब मैं दल का मुखिया था तो दल के सभी लोग मारे गए , अब  मैं पूरे सेना

का मुखिया बनकर पूरे सेना के मृत्यु का कारण नहीं बनना चाहता।

मैं अब कोई युद्ध नहीं चाहता , मैं सेना में स्थित किसी भी पद का त्याग

करता हूँ। 


बखोटन ने घर पहुँच कर अपने घर का दरवाजा खटखटाया।

अंदर से एक बुजुर्ग व्यक्ति की आवाज आयी,

बेटा बखोटन आ गए आ जाओ, आने में देर हो गयी तुम्हे।

मैंने तुम्हारे लिए बाजरे की खिचड़ी बनाई थी , तुम्हारी राह देखते देखते

तुम्हारे बाप का मुँह और खिचड़ी दोनों हीं सुख गए।


बखोटन खाना खाने बैठ गया किन्तु भोजन हलक से नीचे न उतार पाया। 


उसके पिता ने पूछा :-

    क्या खिचड़ी का स्वाद ज्यादा बिगड़ गया है ?

बखोटन ने जवाब दिया :-

    नही पिताजी बस मन जरा अशांत हो रहा है। 

उसके पिता ने कहा :-

    बेटा अगर मन नहीं है तो जबरदस्ती मत खाओ , पहले हीं आज काफी

झेल चुके हो। 

थक भी गए होंगे , संदूक के पीछे एक प्याले जितने मदिरा रखी है , पी के

आज रात्रि विश्राम करो । 


बखोटन ने भी बात मानकर मदिरा पी ली और सो गया , सुबह उठा तो खुद

को एक कैदी वाहन में कैद पाया , जो महल के पास बने कारागार की तरफ

गतिमान था।

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