मुझ सा इश्क़

मुझ सा इश्क़

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इश्क़ तो आपने 
भी करी थी न
फिर हमे ही क्यों 
याद दिलानी पड़ती है 

वादे तो दोनों ने 
किए थे मिलकर सनम
फिर रकीब को कर्ज 
क्यूँ चुकानी पड़ती है

तुम्हारे बिन तुम्हारी 
यादों के बिन रहना है अब
हर बार दिल को तसल्ली 
दिलानी पड़ती है

तेरे कानों में लटकी वो 
बलखाती झुमका देख
पहनाई थी मैंने 
ये बतानी पड़ती है

क्या लगता है कोई और 
करेगा मुझ सा इश्क़ तुम्हें
नहीं ! अब ये बात भी 
जतानी पड़ती है

मेरी तो चांद रूठी 
तुम्हरा भी शम्स खोया है
याद आए तो अब 
बत्तियां बुझानी पड़ती है

अभी भी खड़ा है मुर्शीद 
तेरा उसी राह पर
जहां तेरी पायल की 
आहट सुनाई पड़ती है

लहराती हवाएं झूमती 
बेल लचकते पेड़
तेरी चुनरी की सरसराहट 
सी जानी पड़ती है

© Tukbook

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