हम तेरी चाह में, ऐै यार !
वहाँ तक पहुँचे,
होश ये भी नहीं है
कि कहाँ तक पहुँचे,
इतना मालूम है,
ख़ामोश है सारी महफ़िल,
पर न मालूम, ये
ख़ामोशी कहाँ तक पहुँचे,
न ज़िन, न फ़रिश्ते, न वो
दरवेश, न वो फ़क़ीर,
न वो ज्ञानी ,न वो ध्यानी,
न वो अलीम, न वो कारी,
वो कोई और नहीं, हम हीं थे
जो तेरे मकाँ तक पहुँचे,
एक इस आस पे
अब तक है मेरी बन्द जुबाँ,
कल को शायद मेरी
आवाज़ वहाँ तक पहुँचे,
चाँद को छूके चले
आए हैं विज्ञान के पंख,
देखना ये है कि इन्सान
कहाँ तक पहुँचे...
© Tukbook
अल्फाज़-ऐ-एज़ाज़
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