माथे की शिकन

  


तुम ऐसे चुप हो एज़ाज़ कि 

ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे, 

तेरा खुद से मिलना भी 

जुदाई की घड़ी हो जैसे, 


अपने ही साये से डर जाते हो हरदम, 

रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे, 


मंज़िलें दूर भी हैं मंज़िलें नज़दीक भी हैं

अपने ही पाँव में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे


मेरे माथे की शिकन पहले भी देखी थी मगर, 

यह शिकन अब मेरे दिल पे पड़ी हो जैसे, 


कितने नादान हैं वो लोग भूलने वाले तुझे

की मुझे याद करने के लिये उम्र पड़ी हो जैसे, 


आज दिल खोल के रोये हैं तो यूँ ख़ुश हूँ  "एज़ाज़"

चंद लम्हों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे... 


अल्फाज़-ऐ-एज़ाज़

© Tukbook

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